नमस्कार मित्रो!
आइये हम सभी आज बिहार की सांस्कृतिक समृद्धि का सूचक तथा लोक आस्था का महापर्व छठ(सूर्य षष्ठी व्रत,डाला छठ) ,के बारे में जानें।
आइये हम सभी आज बिहार की सांस्कृतिक समृद्धि का सूचक तथा लोक आस्था का महापर्व छठ(सूर्य षष्ठी व्रत,डाला छठ) ,के बारे में जानें।
छठ पर्व की चर्चा सुनते ही मन खुशी से झूम उठता है। बिहार में तो दशहरा के बाद से ही लोग छठ की तैयारियों में जुट जाते है। मुख्य रूप से सूर्योपासना का यह पर्व बिहारवासियों के प्रकृति के प्रति अटूट श्रद्धा को दिखाता है। चार दिनों तक चलनेवाले इस पर्व को मुख्यरूप से महिलाएँ मनाती हैं। छठ पर्व,एकमात्र पर्व है जिसमें डूबते
सूरज को अर्घ्य देने का चलन है। छठ पर्व के गीत मानव ही नहीं समस्त प्रकृति को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।
यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है।
एक चैत महीने में जिसे चैती छठ तथा दूसरा कार्तिक महीने में जिसे कतकी छठ के नाम से जाना जाता है। सर्वत्र कतकी छठ की धूम रहती है।
तो आइये जानते हैं छठ व्रती इस पर्व को कैसे करते हैं-चार दिनों तक चलनेवाला यह पर्व कार्तिकशुक्ल चतुर्थी से प्रारंभ होकर सप्तमी तिथि को प्रातः अर्घ्य के पश्चात समाप्त होता है। चार दिनों तक छठ व्रती -मन, कर्म,तथा वाणी की पवित्रता का पूरा ध्यान रखते हैं।वस्त्र, पूजनस्थल,तथा पूजन सामग्रियों की शुद्धता का भी भरपूर ध्यान रखा जाता है।
छठ व्रत का पहला दिन अर्थात कार्तिकशुक्ल चतुर्थी---इस दिन को बिहार में नहाय-खाय के नाम से जाना जाता है।इस दिन व्रती अरवा चावल,अरहर दाल तथा कद्दू की सब्जी का सेवन करते है।
पंचमी-- इस दिन व्रती मिट्टी के बने नए चूल्हे का प्रयोग करते हैं। दिन भर निराहार रहते हैं। शाम में गुड़ और चावल में बनी खीर तथा रोटी बनाकर पूजनोपरांत सेवन करते हैं।इस दिन को बिहार में खरना के नाम से जाना जाता है। इस शाम में भोजन के बाद व्रती लगातार व्रत समाप्ति तक विना जल ग्रहण किये निराहार रहते हैं।
षष्ठी की सन्ध्या-- इस दिन प्रातः महिलाएँ विविध प्रकार के पकवानों को बनाती हैं जैसे- पुआ, ठेकुआ, खजूर,पुड़ी आदि। पुरुष भी पूरे उसाह के साथ पूजा की सामग्रियों को यहां वहाँ से एकत्र करते हैं।
पुनः बाल, बच्चे ,वृद्ध सभी सन्ध्या अर्घ्य की सामग्रियों को बाँस की बनी टोकरी में लेकर छठ घाट पर जाते हैं। सभी पारम्परिक वेश धारण करते हैं। महिलाये रास्ते में छठगीत गाते हुए जाती हैं जो छठ पर्व की खुशी को कई गुना बढ़ा देती है। छठ घाट पर धूप, दीप, अगरबत्ती, अक्षत आदि से छठी मइया(षष्टी माता) की पूजा की जाती है। उसके बाद सभी व्रती जल में उतरकर ,अर्घ्यपात्र(बाँस का बना सुप) लिए भगवान भास्कर के अस्त होने की प्रतीक्षा करते हैं।जब सूर्य देव अस्त होने को होते हैं, व्रती अर्घ्य देकर घर वापस आते हैं।
कोसी भराई-- घर वापस आकर गन्ने को आँगन में गोलाकार खड़ा कर,मिट्टी की बनी ढकनी में फल, पकवान,अदरख, सुथनी,चना,अक्षत आदि रखकर कोसी भराई होती है।इन कोसियों की संख्या चौबीस होती है।इन पर दीप प्रज्ज्वलित कर घर व पड़ोस की सभी महिलाएँ बहुत ही भक्तिमय गीतों को गाती हैं। इन गीतों में कुल देवता के साथ परिवार के सभी सदस्यों के नामों का उच्चारण किया जाता है।
प्रातः अर्घ्य-- इन भरे हुए कोसियों के साथ व्रती पुनः रात्रि के तीसरे प्रहर छठ घाट जाते हैं।फिर सन्ध्या अर्घ्य की तरह उगते सूर्य को अर्घ्य प्रदान किया जाता है। सभी सहर्ष भगवान आदित्य को प्रणाम कर घर आते हैं। रास्ते में पारम्परिक गीतों से वातावरण गूँज उठता है।सभी सौभाग्यवती स्त्रियाँ बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद लेती हैं, एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। व्रत का पारण-- व्रती घर लौटकर अदरख तथा गुड़ खाकर उपवास तोड़ती हैं।
इस प्रकार चार दिनों तक चलने वाला यह महापर्व सम्पन्न होता है।
सूरज को अर्घ्य देने का चलन है। छठ पर्व के गीत मानव ही नहीं समस्त प्रकृति को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।
यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है।
एक चैत महीने में जिसे चैती छठ तथा दूसरा कार्तिक महीने में जिसे कतकी छठ के नाम से जाना जाता है। सर्वत्र कतकी छठ की धूम रहती है।
तो आइये जानते हैं छठ व्रती इस पर्व को कैसे करते हैं-चार दिनों तक चलनेवाला यह पर्व कार्तिकशुक्ल चतुर्थी से प्रारंभ होकर सप्तमी तिथि को प्रातः अर्घ्य के पश्चात समाप्त होता है। चार दिनों तक छठ व्रती -मन, कर्म,तथा वाणी की पवित्रता का पूरा ध्यान रखते हैं।वस्त्र, पूजनस्थल,तथा पूजन सामग्रियों की शुद्धता का भी भरपूर ध्यान रखा जाता है।
छठ व्रत का पहला दिन अर्थात कार्तिकशुक्ल चतुर्थी---इस दिन को बिहार में नहाय-खाय के नाम से जाना जाता है।इस दिन व्रती अरवा चावल,अरहर दाल तथा कद्दू की सब्जी का सेवन करते है।
पंचमी-- इस दिन व्रती मिट्टी के बने नए चूल्हे का प्रयोग करते हैं। दिन भर निराहार रहते हैं। शाम में गुड़ और चावल में बनी खीर तथा रोटी बनाकर पूजनोपरांत सेवन करते हैं।इस दिन को बिहार में खरना के नाम से जाना जाता है। इस शाम में भोजन के बाद व्रती लगातार व्रत समाप्ति तक विना जल ग्रहण किये निराहार रहते हैं।
षष्ठी की सन्ध्या-- इस दिन प्रातः महिलाएँ विविध प्रकार के पकवानों को बनाती हैं जैसे- पुआ, ठेकुआ, खजूर,पुड़ी आदि। पुरुष भी पूरे उसाह के साथ पूजा की सामग्रियों को यहां वहाँ से एकत्र करते हैं।
पुनः बाल, बच्चे ,वृद्ध सभी सन्ध्या अर्घ्य की सामग्रियों को बाँस की बनी टोकरी में लेकर छठ घाट पर जाते हैं। सभी पारम्परिक वेश धारण करते हैं। महिलाये रास्ते में छठगीत गाते हुए जाती हैं जो छठ पर्व की खुशी को कई गुना बढ़ा देती है। छठ घाट पर धूप, दीप, अगरबत्ती, अक्षत आदि से छठी मइया(षष्टी माता) की पूजा की जाती है। उसके बाद सभी व्रती जल में उतरकर ,अर्घ्यपात्र(बाँस का बना सुप) लिए भगवान भास्कर के अस्त होने की प्रतीक्षा करते हैं।जब सूर्य देव अस्त होने को होते हैं, व्रती अर्घ्य देकर घर वापस आते हैं।
कोसी भराई-- घर वापस आकर गन्ने को आँगन में गोलाकार खड़ा कर,मिट्टी की बनी ढकनी में फल, पकवान,अदरख, सुथनी,चना,अक्षत आदि रखकर कोसी भराई होती है।इन कोसियों की संख्या चौबीस होती है।इन पर दीप प्रज्ज्वलित कर घर व पड़ोस की सभी महिलाएँ बहुत ही भक्तिमय गीतों को गाती हैं। इन गीतों में कुल देवता के साथ परिवार के सभी सदस्यों के नामों का उच्चारण किया जाता है।
प्रातः अर्घ्य-- इन भरे हुए कोसियों के साथ व्रती पुनः रात्रि के तीसरे प्रहर छठ घाट जाते हैं।फिर सन्ध्या अर्घ्य की तरह उगते सूर्य को अर्घ्य प्रदान किया जाता है। सभी सहर्ष भगवान आदित्य को प्रणाम कर घर आते हैं। रास्ते में पारम्परिक गीतों से वातावरण गूँज उठता है।सभी सौभाग्यवती स्त्रियाँ बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद लेती हैं, एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। व्रत का पारण-- व्रती घर लौटकर अदरख तथा गुड़ खाकर उपवास तोड़ती हैं।
इस प्रकार चार दिनों तक चलने वाला यह महापर्व सम्पन्न होता है।
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| Chhath Puja |
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| Surya Brrat |
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| Lord Surya |
छठ पर्व का इतिहास-- भारतीय समाज उत्सव प्रिय रहा है। प्रत्येक पर्व के साथ लोकमंगलकारी दर्शन और वैभवशाली इतिहास जुड़ा हुआ है। सूर्य उपासना के इस पर्व के साथ भी कई ऐतिहासिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं, उनमें से एक इस प्रकार है- जब पांडव जुए में अपना सब राज-पाट हार गए तब पांडवों के दुर्दिन आ गए। ऐसी स्थिति में पांडवों के शुभ चिंतक तथा दीनों दुखहर्ता भगवान कृष्ण ने द्रौपदी को सूर्य षष्टी व्रत(छठ) करने की सलाह दी। द्रौपदी ने श्रीकृष्ण की सलाह मानकर किया जिसके परिणामस्वरूप खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त हुआ।
लोकमान्यता के अनुसार सूर्य का षष्टी देवी से भ्रातृवत सम्बन्ध है तथा सूर्य ने ही प्रथमतः इनकी पूजा की थी। इस कारण इस व्रत की आराध्या षष्टी देवी(छठी मइया) भी मानी जाती हैं।
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सूर्य उपासना के इस पर्व से जुड़ी एक कहानी ऐसी भी मिलती है- कृष्ण तथा जाम्बवती के पुत्र साम्ब ने ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया।हुआ यूँ कि साम्ब ने ऋषि दुर्वासा के समक्ष ही उनके दुबले पतले शरीर और चाल- ढाल का नकल करनी शुरू कर दी।दुर्वासाजी ने अपना यह उपहास देख, साम्ब को कुष्ठ रोगी होने का शाप दे दिया । रोगमुक्त के लिये साम्ब ने भी भगवान सूर्य की उपासना की थी।
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सूर्य उपासना के इस पर्व से जुड़ी एक कहानी ऐसी भी मिलती है- कृष्ण तथा जाम्बवती के पुत्र साम्ब ने ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया।हुआ यूँ कि साम्ब ने ऋषि दुर्वासा के समक्ष ही उनके दुबले पतले शरीर और चाल- ढाल का नकल करनी शुरू कर दी।दुर्वासाजी ने अपना यह उपहास देख, साम्ब को कुष्ठ रोगी होने का शाप दे दिया । रोगमुक्त के लिये साम्ब ने भी भगवान सूर्य की उपासना की थी।
दानवीर कर्ण तो सूर्य के ही अंश थे।कर्ण की सूर्य पूजा तो सर्वविदित है। कर्ण की माता कुंती भी सूर्योपासिका थीं।
इन सबके अतिरिक्त इस पर्व की मान्यता त्रेता युग में माँ सीता से भी जुड़ी हुई है।। ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना (जिन्हें ब्रह्मा द्वारा रचित प्रकृति का छठवाँ अंश माना जाता है) और राजा प्रियव्रत भी छठ पर्व के इतिहास से जुड़ी घटनाओं से सम्बन्ध रखते हैं।
इन सबके अतिरिक्त इस पर्व की मान्यता त्रेता युग में माँ सीता से भी जुड़ी हुई है।। ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना (जिन्हें ब्रह्मा द्वारा रचित प्रकृति का छठवाँ अंश माना जाता है) और राजा प्रियव्रत भी छठ पर्व के इतिहास से जुड़ी घटनाओं से सम्बन्ध रखते हैं।
पूजा में जटिल कर्मकांडो की अनिवार्यता नहीं जो
इस पूजा में विशाल जनभागीदारी का एक बड़ा कारण है।
छठ पर्व के समय छठ व्रतियों में आस्था और त्याग की भावना अपने चरमोत्कर्ष पर होती है।भगवान भुवन भास्कर तो भाव के ही भूखे हैं। इसीलिए पूर्वजों ने जटिल कर्मकांडो तथा मंत्रो को अनिवार्य नहीं बनाया। छठ व्रतियों की अगाध श्रद्धा और भगवान सूर्य के प्रति अपार प्रेम के कारण ही ,इस व्रत में व्रतियों के मन की सभी मुरादे शीघ्र पूरी होती हैं। जो बड़े बड़े यज्ञों से भी पूरी नहीं होती।
इस पूजा में विशाल जनभागीदारी का एक बड़ा कारण है।
छठ पर्व के समय छठ व्रतियों में आस्था और त्याग की भावना अपने चरमोत्कर्ष पर होती है।भगवान भुवन भास्कर तो भाव के ही भूखे हैं। इसीलिए पूर्वजों ने जटिल कर्मकांडो तथा मंत्रो को अनिवार्य नहीं बनाया। छठ व्रतियों की अगाध श्रद्धा और भगवान सूर्य के प्रति अपार प्रेम के कारण ही ,इस व्रत में व्रतियों के मन की सभी मुरादे शीघ्र पूरी होती हैं। जो बड़े बड़े यज्ञों से भी पूरी नहीं होती।
सूर्य के पर्याय तथा अर्घ्य के सबसे सरल मन्त्र
सूर्य के बारह नाम अति प्रसिद्ध हैं जिनसे सूर्य भक्त भगवान भास्कर को अर्घ्य प्रदान करते हैं जो सरल संक्षिप्त और शीघ्र ही याद हो जाने योग्य है यथा-- (ॐ मित्राय नमः, ॐ रवये नमः , ॐ सूर्याय नमः, ॐ भानवे नमः, ॐ खगाय नमः, ॐ पूष्णे नमः, ॐ हिरण्यगर्भाय नमः, ॐ मरीचये नमः, ॐ आदित्याय नमः, ॐ सवित्रे नमः, ॐ अर्काय नमः, ॐ भास्कराय नमः। )इन नामों के पहले ॐ और अंत में नमः जोड़ देने से ये अर्घ्य के मन्त्र बन जाते हैं। इन नाम मन्त्रों से भी अर्घ्य प्रदान किया जाता है।
सूर्य के बारह नाम अति प्रसिद्ध हैं जिनसे सूर्य भक्त भगवान भास्कर को अर्घ्य प्रदान करते हैं जो सरल संक्षिप्त और शीघ्र ही याद हो जाने योग्य है यथा-- (ॐ मित्राय नमः, ॐ रवये नमः , ॐ सूर्याय नमः, ॐ भानवे नमः, ॐ खगाय नमः, ॐ पूष्णे नमः, ॐ हिरण्यगर्भाय नमः, ॐ मरीचये नमः, ॐ आदित्याय नमः, ॐ सवित्रे नमः, ॐ अर्काय नमः, ॐ भास्कराय नमः। )इन नामों के पहले ॐ और अंत में नमः जोड़ देने से ये अर्घ्य के मन्त्र बन जाते हैं। इन नाम मन्त्रों से भी अर्घ्य प्रदान किया जाता है।
पूजा की महत्वपूर्ण सामग्रियों की सूची
छठ पूजा पूर्णरूपेण प्रकृति पूजा है, अतः इसमें उपयोग की जानेवाली सभी वस्तुएँ भी कृत्रिम न होकर प्राकृतिक होती हैं। (जैसे- बाँस से बनी बड़ी टोकरी(दउरा) ,सुप, नारियल, बड़ा निम्बू खट्टा और मीठा, ऋतुफल(केला,सेब,सिंघाड़ा,सन्तरा आदि), पत्तेदार हल्दी अदरख, मूली, बोरो,सुथनी, अरवी, पान पत्ता , लौंग, इलायची , सिंदूर, अलता पत्ता, लड्डू, बताशा, अक्षत,चना, रुइबत्ती,तेल, धूप या अगरबत्ती, नवीन वस्त्र, गन्ना,मिट्टी का छोटा कलश,दीया, ढकनी आदि।
छठ के गीत-- मित्रो! भारतीय समाज जन मन का रंजन करनेवाले गीतों से भरा पड़ा है। जन्म से मृत्यु तक गीत ही गीत! सबसे बड़ी बात इन गीतों में किसी शास्त्रीयता का बंधन नहीं होता।इसलिए इन गीतों का लोकसंस्कृति से अटूट जुड़ाव है। छठ के गीतों के विना तो छठ पूजा की कल्पना नहीं जा सकती।ये गीत कब बने, किसने सबसे पहले गाया, किसने धुन बनाया इन सभी प्रश्नों का एकमात्र उत्तर है- लोकजीवन में आनन्द का अतिरेक।अर्थात लोकमन जब आनन्द से भर जाता है तो ये गीत बन जाते हैं।स्वतः स्फुरित हो लोकसंस्कृति की अविरल धारा में शामिल हो जाते हैं।
कुछ मुख्य गीतों के मुखड़े- (1)केरवा जे फरेला घवद पर ,ओहि पर सुगा मेंड़राय।
सुगवा के मरबो धेनुख से,सुगा गिरे मुरझाय।।
कुछ मुख्य गीतों के मुखड़े- (1)केरवा जे फरेला घवद पर ,ओहि पर सुगा मेंड़राय।
सुगवा के मरबो धेनुख से,सुगा गिरे मुरझाय।।
(2) काँच ही बाँस के बहंगीया, बहंगी लचकत जाय।
(3) कोपि कोपि बोलीले छठीय मइया, सुनी ए सेवक लोग। रउरा घाटे मकरी बहारी देब गोबर लिपाई देब।।
(4) पटना के घाट पर नारियर, नारियर कीनबे जरूर।
हाजीपुर से करवा मगाइके,अरघ दिहबे जरूर।
हाजीपुर से करवा मगाइके,अरघ दिहबे जरूर।
(5) उगी ए सुरुज देव् भइले अरघ के बेर
(6) हमतो से पूछी ले छठी के वरतिया की केकरा लगी।
तू करेल छठ वरतिया की केकरा लागी।
(6) हमतो से पूछी ले छठी के वरतिया की केकरा लगी।
तू करेल छठ वरतिया की केकरा लागी।
इस प्रकार के अनेकों गीत छठ व्रतियों के द्वारा गाये जाते हैं।
छठ पर्व कहाँ -कहाँ मनाया जाता है ?
भारत में दो तरह के पर्व मनाये जाते हैं,राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर के। छठ पर्व मुख्य रूप से बिहार का क्षेत्रीय पर्व है।बिहारवासी जहाँ भी गए उन्होंने अपनी लोकआस्था तथा लोकसंस्कृति को जीवित रखा।आज यह पर्व लगभग पूरे भारत मे मनाया जाने लगा है।भारत के अलावा मॉरिसस,श्रीलंका,नेपाल , अमेरिका, ब्रिटेन,अफ़्रीका आदि देशों में भी भारतीयों द्वारा मनाया जाता है। हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य भी इस पर्व को करते है। इस पर्व का क्षेत्र लगातार बढ़ता जा रहा है।इसका प्रमुख कारण है,इस पर्व आडम्बर रहित होना।
छठ पर्व कहाँ -कहाँ मनाया जाता है ?
भारत में दो तरह के पर्व मनाये जाते हैं,राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर के। छठ पर्व मुख्य रूप से बिहार का क्षेत्रीय पर्व है।बिहारवासी जहाँ भी गए उन्होंने अपनी लोकआस्था तथा लोकसंस्कृति को जीवित रखा।आज यह पर्व लगभग पूरे भारत मे मनाया जाने लगा है।भारत के अलावा मॉरिसस,श्रीलंका,नेपाल , अमेरिका, ब्रिटेन,अफ़्रीका आदि देशों में भी भारतीयों द्वारा मनाया जाता है। हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य भी इस पर्व को करते है। इस पर्व का क्षेत्र लगातार बढ़ता जा रहा है।इसका प्रमुख कारण है,इस पर्व आडम्बर रहित होना।
छठ के घाट-- छठ नदियों के किनारे,तालाब या अन्य किसी पवित्र जल स्रोत के पास मनाया जाता है।उसके किनारों को घाट कहते हैं। वहाँ मिट्टी से टिलानुमा श्रीसोपता (सम्भवतः श्रीस्तुप का अपभ्रंश) बनाया जाता है।जहाँ छठ व्रती पूजन कार्य करते हैं।
घाटों की साफ-सफाई सभीलोग मिलकर करते हैं।सार्वजनिक घाटों पर प्रशासन भी इस कार्य को करता है। घाटों को खूब सजाया जाता है। छठव्रतियों की सुविधा तथा सुरक्षा की जिम्मेवारी सभीलोग उठाते हैं। छठ घाटों की सुंदरता अवर्णनीय हो जाती है।ऐसा लगता है मानो एक बार फिर से दीवाली मनाई जा रही हो।
घाटों की साफ-सफाई सभीलोग मिलकर करते हैं।सार्वजनिक घाटों पर प्रशासन भी इस कार्य को करता है। घाटों को खूब सजाया जाता है। छठव्रतियों की सुविधा तथा सुरक्षा की जिम्मेवारी सभीलोग उठाते हैं। छठ घाटों की सुंदरता अवर्णनीय हो जाती है।ऐसा लगता है मानो एक बार फिर से दीवाली मनाई जा रही हो।
छठ पूजा का आर्थिक पक्ष-- चूँकि छठ पूजा में प्रयोग होने वाली लगभग सभी वस्तुएँ बड़े उद्योगों में नहीं बनाई जाती। सारी वस्तुएँ छोटे किसानों द्वारा उगाई और उनके लघु व कुटीर उद्योगों में बनती हैं।अतः छठ पर्व के इस बड़े बाजार का लाभ सीधे तौर पर हमारे किसान बन्धुओं को मिलता है। कुछ किसान तो पूरे वर्ष की तैयारी छठ पर्व के इस बड़े बाजार के लिए ही करते हैं।
छठ पूजा के सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्ष
भारत ही नहीं विश्व ने प्रकृति के हर उस घटक की उपासना की जिससे उसे लाभ प्राप्त हुआ।भारत ने तो इन जड़ वस्तुओं से मातृवत सम्बन्ध जोड़ लिया। ये नदियाँ, भूमि, अन्न,गौ आदि सबको माता मानकर उनकी पूजा किया। प्रकृति से अटूट सम्बन्ध होने के कारण हमने सबका मानवीकरण कर दिया। जल,वन,वृक्ष ,पर्वत,वायु आदि सबको देवता मान कर पूजा किया गया। सूर्य इस प्रकृति के सबसे महत्त्वपूर्ण घटक हैं।इनकी उपासना भारत मे ही नहीं विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में भी देखी जाती है।जैसे मिस्र,बेबीलोन, यूनान, हड़प्पा आदि।इन प्राचीन सभ्यताओं में भी सूर्य की उपासना होती थी।
मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से ही होती है। सूर्य ऊर्जा के प्रमुख स्रोत भी हैं। ऊर्जा के आभाव में सृष्टि की कल्पना नहीं हो सकती। इसलिये छठ का यह महापर्व सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की प्रेरणा देता है।
सूर्य की भारतवासियों पर विशेष कृपा रहती है।ऐसा इसलिए कि विश्व के अधिकांश देश या तो सूर्य के दर्शन को तरसते है या वर्ष भर सूर्य के उग्र ताप को सहते हैं। परंतु भारत में ऐसी बात नहीं है।हमपर सूर्य देव की कृपा 365 गुने 24, लगभग एक समान बनी रहती है।
वर्तमान समय में ऊर्जा संकट से पूरा विश्व जूझ रहा है।अधिकांश ऊर्जा स्रोत समाप्त होने के कागार पर है।वहीं सूर्य अक्षय ऊर्जा के प्रदाता हैं।अर्थात सौर ऊर्जा समाप्त होनेवाली नहीं है।
छठ पर्व हमें अक्षय ऊर्जा देने के साथ अक्षय ऊर्जा को इस्तेमाल कर प्रकृति के दोहन से बचने की प्रेरणा भी देता है।
मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से ही होती है। सूर्य ऊर्जा के प्रमुख स्रोत भी हैं। ऊर्जा के आभाव में सृष्टि की कल्पना नहीं हो सकती। इसलिये छठ का यह महापर्व सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की प्रेरणा देता है।
सूर्य की भारतवासियों पर विशेष कृपा रहती है।ऐसा इसलिए कि विश्व के अधिकांश देश या तो सूर्य के दर्शन को तरसते है या वर्ष भर सूर्य के उग्र ताप को सहते हैं। परंतु भारत में ऐसी बात नहीं है।हमपर सूर्य देव की कृपा 365 गुने 24, लगभग एक समान बनी रहती है।
वर्तमान समय में ऊर्जा संकट से पूरा विश्व जूझ रहा है।अधिकांश ऊर्जा स्रोत समाप्त होने के कागार पर है।वहीं सूर्य अक्षय ऊर्जा के प्रदाता हैं।अर्थात सौर ऊर्जा समाप्त होनेवाली नहीं है।
छठ पर्व हमें अक्षय ऊर्जा देने के साथ अक्षय ऊर्जा को इस्तेमाल कर प्रकृति के दोहन से बचने की प्रेरणा भी देता है।
धर्मग्रन्थों में सूर्य और उपासना के लाभ
सूर्य परमपिता के नेत्र माने गए हैं। सूर्य लोकलोचन के अधिदेवता भी हैं।सौरपरिवार के मुखिया हैं।अतः इनकी उपासना नेत्रदोषों, ग्रह दोषों तथा समस्त रोगों को दूर करती है।
महर्षि कश्यप और अदिति इनके माता पिता हैं।विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से सूर्य देव का परिणय हुआ।संज्ञा से श्राद्धदेव,यमराज तथा यमुनाजी का जन्म हुआ। चूँकि देवी संज्ञा ,सूर्य के ताप को सहन नहीं कर पाती।अतः अपनी छाया छोड़कर संज्ञा तप को चली गई।छाया से शनैश्चर, सावर्णि मुनि तथा तपती का जन्म हुआ। संज्ञा के तप स्वरूप से अश्विनी कुमार का जन्म हुआ।
त्रेता के सुग्रीव व द्वापरयुग के कर्ण सूर्यांश से ही उत्पन्न हुए।
विनितानन्दन गरुड़ के बड़े भाई अरुण भगवान सूर्य के रथ को चलाते है।जिसमे सात घोड़े(सात रंग) जुते हैं। हनुमान जी के गुरु भगवान सूर्य ही है।
छठ पर्व में शामिल होती कुरीतियाँ !
कोई भी पर्व अपने मूल स्वरूप को छोड़ देता है तो जनभागीदारी घटने लगती है।जनभागीदारी नहीं तो पर्व कैसा, उत्सव कैसा। आइये ऐसे कुछ मुद्दों पर चर्चा कर लेते हैं--(1) आजकल छठ पूजा के पारम्परिक गीतों की जगह कुछ ऐसे गीतों ने ले लिया है,उनके रिदिम, उनके बोल,उनके धुन ऐसे बन रहे हैं जिनसे मन में श्रद्धा की जगह व्यग्रता आ जाती है।
(2) पूजा को अति खर्चीला बनाना- छठपूजा पूरी तरह से प्राकृतिक और ऋतु में उपलब्ध वस्तुओं से होती है। बहुत सी वस्तुएँ आपके आसपास ही उपलब्ध होती हैं। हमारा प्रयास पर्व को पूजा प्रधान बनाना है ।दिखावे की संस्कृति हमारी नहीं है। प्रायः यह देखा गया है कि पूजन में कम दिखावे में अधिक व्यय हो जाता है। इससे पर्व में जन भागीदारी घटने का डर है।
(3) श्रीस्तुप ,जहाँ हम पूजा करते हैं वह प्रतीकात्मक होता है तथा अल्पकालिक होता है। प्रायः ऐसा देखा गया है प्रतिवर्ष लोग स्थायी छठस्तुपों का निर्माण कराते हैं।जिससे बेवजह भूमि का अतिक्रमण हो रहा है।
(4) पटाखों का प्रयोग -यह पर्व के प्रतिकूल है।
(5) हमारे जलाशय तथानदियाँ लगातार अशुद्ध होती जा रहीं उसी जल से अर्घ्य देना पर्व की मर्यादा के विपरीत है। अतः हमें अपनी नदियों को पवित्र रखना पड़ेगा ।
सूर्य परमपिता के नेत्र माने गए हैं। सूर्य लोकलोचन के अधिदेवता भी हैं।सौरपरिवार के मुखिया हैं।अतः इनकी उपासना नेत्रदोषों, ग्रह दोषों तथा समस्त रोगों को दूर करती है।
महर्षि कश्यप और अदिति इनके माता पिता हैं।विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से सूर्य देव का परिणय हुआ।संज्ञा से श्राद्धदेव,यमराज तथा यमुनाजी का जन्म हुआ। चूँकि देवी संज्ञा ,सूर्य के ताप को सहन नहीं कर पाती।अतः अपनी छाया छोड़कर संज्ञा तप को चली गई।छाया से शनैश्चर, सावर्णि मुनि तथा तपती का जन्म हुआ। संज्ञा के तप स्वरूप से अश्विनी कुमार का जन्म हुआ।
त्रेता के सुग्रीव व द्वापरयुग के कर्ण सूर्यांश से ही उत्पन्न हुए।
विनितानन्दन गरुड़ के बड़े भाई अरुण भगवान सूर्य के रथ को चलाते है।जिसमे सात घोड़े(सात रंग) जुते हैं। हनुमान जी के गुरु भगवान सूर्य ही है।
छठ पर्व में शामिल होती कुरीतियाँ !
कोई भी पर्व अपने मूल स्वरूप को छोड़ देता है तो जनभागीदारी घटने लगती है।जनभागीदारी नहीं तो पर्व कैसा, उत्सव कैसा। आइये ऐसे कुछ मुद्दों पर चर्चा कर लेते हैं--(1) आजकल छठ पूजा के पारम्परिक गीतों की जगह कुछ ऐसे गीतों ने ले लिया है,उनके रिदिम, उनके बोल,उनके धुन ऐसे बन रहे हैं जिनसे मन में श्रद्धा की जगह व्यग्रता आ जाती है।
(2) पूजा को अति खर्चीला बनाना- छठपूजा पूरी तरह से प्राकृतिक और ऋतु में उपलब्ध वस्तुओं से होती है। बहुत सी वस्तुएँ आपके आसपास ही उपलब्ध होती हैं। हमारा प्रयास पर्व को पूजा प्रधान बनाना है ।दिखावे की संस्कृति हमारी नहीं है। प्रायः यह देखा गया है कि पूजन में कम दिखावे में अधिक व्यय हो जाता है। इससे पर्व में जन भागीदारी घटने का डर है।
(3) श्रीस्तुप ,जहाँ हम पूजा करते हैं वह प्रतीकात्मक होता है तथा अल्पकालिक होता है। प्रायः ऐसा देखा गया है प्रतिवर्ष लोग स्थायी छठस्तुपों का निर्माण कराते हैं।जिससे बेवजह भूमि का अतिक्रमण हो रहा है।
(4) पटाखों का प्रयोग -यह पर्व के प्रतिकूल है।
(5) हमारे जलाशय तथानदियाँ लगातार अशुद्ध होती जा रहीं उसी जल से अर्घ्य देना पर्व की मर्यादा के विपरीत है। अतः हमें अपनी नदियों को पवित्र रखना पड़ेगा ।
हमें इन बातों को ध्यान में रखना होगा।



