श्रीकृष्ण तथा श्रीराम भारतीय संस्कृति के दो आधार स्तम्भ है। इनका नाम अति श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। दोनों ही विष्णु के अवतार माने जाते हैं। परंतु राम और कृष्ण के साथ जुड़ी घटनाओं में पर्याप्त अंतर दिखाई पड़ता है।
श्रीराम का जीवन जहाँ एक आदर्श स्थापित करता है वहीं श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन विचित्रता तथा कौतुक को प्रदर्शित करता है।
श्रीराम को मर्यादापुरुषोत्तम तथा श्रीकृष्ण को लीलापुरुषोत्तम के रूप में जाना जाता है। श्रीराम को जहाँ आदि से अंत तक गम्भीर और स्थिर भाव में देखा जाता है तो श्रीकृष्ण को चंचलता ,चपलता और हँसोडपन की मूर्ति के रूप में देखा जाता है।
यदि भगवान श्रीराम को किसीने हँसते हुए नहीं देखा तो कृष्ण को किसीने रोते नहीं देखा। श्रीराम ने अपने जीवन में आजन्म एक ही रूप धारण किये रखा वही कृष्ण ने क्षण क्षण में अलग अलग भूमिकाओं का निर्वहन किया तथा नई नई लीलाएँ दिखाईं।
श्रीराम ने मर्यादा दर्शाने के लिए मर्यादाओं के बंधन में स्वयं को बाँध लिया तो कृष्ण ने प्रकृति को नचाने में महारथ हासिल किया था।
श्रीराम को अपने जीवन में वास्तविक स्वरूप का भान बहुत कम हुआ लेकिन कृष्ण के सम्बंध में ऐसी स्थिति नहीं आई।कृष्ण को तो अपने स्वरूप का विस्मरण कभी हुआ ही नहीं।
श्रीराम को देवताओं के स्मरण कराने पर भी अपने शक्ति व स्वरूप का स्मरण बहुत कठिनता से हुआ तो कृष्ण को अपने विराट स्वरूप का और त्रिलोकी के नायक होने का स्मरण सदैव बना रहा।चाहे अर्जुन के मोह निवारण हेतु रणभूमि में विराट स्वरूप का दर्शन हो या यशोदा को मुँह में ब्रह्मांड दर्शन करवाना हो। या सन्धि हेतु हस्तिनापुर आये कृष्ण को दुर्योधन द्वारा बांधने का प्रसंग हो।कृष्ण को सदैव अपने विराट स्वरूप का स्मरण बना रहा।
भगवान श्रीराम के समान कृष्ण को प्रौढ़ अवस्था में अपने शक्तियों का भान हुआ हो ऐसी बात नहीं थी ये तो जन्म से ही पहुँचे हुए सिद्ध थे।
तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण को श्रीराम के जैसे कठिन तपस्या, योगाभ्यास या बनवास के द्वारा कोई सिद्धि प्राप्त हुई हो ,यह बात नहीं है। विश्वामित्र या अगस्त्य जैसे महर्षियों के समान इनको किसीने दिव्य अस्त्र शस्त्र देने की कृपा नहीं की। कृष्ण को इसकी आवश्यकता भी नहीं थी ।ये तो लीला पुरुषोत्तम थे।
प्रश्न यह भी है कि कृष्ण विद्या की प्राप्ति करते भी कैसे और क्यों ?
जन्म के पहले से ही कंश की विकराल दृष्टि इनपर पड़ी थी। देवकी तथा नन्द बाबा कंश की परछाई से बचाते रहे। ऐसी संकट की स्थिति जहाँ नन्हें से कृष्ण के शत्रु भिन्न-भिन्न रूप धारण कर घूम रहे हों वहाँ उनके शिक्षा के बारे में कोई सोच भी कैसे सकता है।
वैसे ये श्रीराम के समान पहले शिक्षा लेकर बाद में प्रदर्शन किए हों ऐसी बात नहीं थी।ये तो शैशव अवस्था में ,बिना सीखे-पढ़े ही शकटासुर और पूतना आदि का वध करना प्रारम्भ कर दिए थे। कालिया के फन पर नृत्य हो या इंद्र का अभिमान दूर करने हेतु गोवर्धन उठाना हो,ये सारे कार्य बिना सीखे पढ़े ही किये गए।
श्रीराम के समान कृष्ण को राजमहल और राजसी रीतिरिवाजों से परिचय नहीं रहा। इनका बचपन तो सीधे-सादे गाँव के ग्वाल बालों के बीच गौमाताओं को चराते हुए बीता। इनके 11वर्ष तो गौएँ चराने,गोप गोपियों के साथ धमाचौकड़ी मचाने में व्यतीत हो गए। अंत में मथुरा जाकर कंश वध ,उग्रसेन को राजसिंहासन तथा देवकी बसुदेव को कारागार से मुक्त करवाये।
इतना होने के बाद इनका संस्कार (उपनयन आदि) सम्पन्न हुआ और ये उज्जयिनी में संदीपनी मुनि के पास पहुँचे।
आइये अब जरा ये देखें कि संदीपनी मुनि के पास कितने दिन रहे और क्या सीखे। इसका बहुत सुंदर वर्णन भागवत पुराण और महाभारत में आता है।महाभारत में वर्णन आता है कि बहुत ही कम दिनों में ये सभी विद्याओं के ज्ञाता हो गए। 64दिनों में चारों वेद और उसके छः अंगों (शिक्षा,कल्प,व्याकरण,निरुक्त,ज्योतिष,छंद) का ज्ञान प्राप्त कर लिए।
12दिनों में रथ चलाने,हाथी घोड़े आदि का संचालन तथा 50दिनों में धनुर्वेद की शिक्षा समाप्त कर दी।
इन सभी बातों का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण की सभी बातें अलौकिक हैं। उनके कृत्य मनन करने योग्य हैं। श्रीराम के कार्यों का व सम्पूर्ण जीवन का अनुकरण किया जा सकता है परन्तु कृष्ण के द्वारा आजीवन विशेष धर्म का निर्वाह होता रहा अतः यह मनन करने योग्य हैं।
इस साधारण शिक्षा के दम पर कृष्ण के ज्ञान का अनुमान किया जाय तो आश्चर्य होता है। कृष्ण ने सभी विद्याएँ सीखी संदीपनी मुनि के यहाँ परन्तु उससे पूर्व इतना सुंदर नृत्य जो कालिया के फन पर किया वो कहाँ से सीखा ?
जिस मुरली की तान पर जड़ चेतन सभी मुग्ध हो जाते वो बाँसुरी कहाँ से सीखी ?
चाणूर और मुष्टिक जैसे कंश के पहलवान और कुवालियापीड़ जैसे उसके हाथी को परलोक भेजने की कला कहाँ सीखी ?
अघासुर,बकासुर,पूतना,शकटासुर जैसे दैत्यों का अंत करना कहाँ से सीखा ?
ये सारे कार्य कृष्ण सांदीपनि मुनि के पास जाने से पूर्व कर चुके थे। जरा सोंचे 12दिनों की शिक्षा प्राप्त कर अर्जुन का सारथी बन कर सबके दाँत खट्टे कर दिये थे। 64दिनों की शिक्षा का परिणाम गीता सबके सामने है जो पूरे विश्व के साहित्यों में शिरमौर है। कृष्ण को पढ़ने लिखने की परतंत्रता नहीं रही।
इन्हीं सब कारणों से कृष्ण को पूर्णावतार माना जाता है। महर्षि वेदव्यास ने इन्ही सब कारणों से कृष्ण को प्रकृति रूपी नटी को नचाने वाला सूत्रधार बताया है। वास्तव में कृष्णचरित पर जितना विशद और व्यापक अध्ययन किया जाय उतना कम ही होगा।
समाज में प्रचलित कुतर्कों के खण्डन हेतु कृष्ण चरित पर गहन चिंतन की आवश्यकता है।
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