शासन निरंतर शिक्षा के प्रति जागरूक होता जा रहा है। भारत के स्त्री - पुरूष और बच्चे सभी शिक्षा ग्रहण करने हेतु तत्पर हो रहे हैं लेकिन किसे किसकी शिक्षा लेनी चाहिए, किसके लिए कौन सी राह उचित है ,इसका निर्णय नहीं हो पा रहा है। लक्ष्यहीन राही की भाँति जिसके जी में जिधर आता है वह उधर ही उड़ान मार रहा है। शिक्षा का युग होने पर भी घोर आश्चर्य है कि स्त्री-पुरूष किसीको अपने कर्तव्य का भान नहीं है। पथ का ज्ञान नहीं है। गम्भीरता से चिंतन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि हमारी शिक्षा पद्धति ही ऐसी है,जिसने युवक युवतियों की पवित्र भावनाओं को नष्ट कर दिया है। हमारी शिक्षा पद्धति ने उन्हें शक्तिहीन बनाकर मानसिक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ लिया है। उनके मस्तिष्क के लिए ऐसे विषय मिलते हैं, जो उनके व्यवहारिक और सार्वजनिक जीवन के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं। सृष्टि के सृष्टिकर्ता विधाता अल्पज्ञ नहीं थे जिन्होंने स्त्री और पुरुषों में महत्वपूर्ण भेद उत्पन्न कर दिया। उनकी प्रकृति भिन्न बना दी। इस प्रकार जब आदिकाल से ही स्त्रियों के कार्य क्षेत्र सर्वथा पृथक हैं, फिर एक ही शिक्षा दोनों के लिए कैसे उपयोगी साब...
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