शासन निरंतर शिक्षा के प्रति जागरूक होता जा रहा है। भारत के स्त्री - पुरूष और बच्चे सभी शिक्षा ग्रहण करने हेतु तत्पर हो रहे हैं लेकिन किसे किसकी शिक्षा लेनी चाहिए, किसके लिए कौन सी राह उचित है ,इसका निर्णय नहीं हो पा रहा है। लक्ष्यहीन राही की भाँति जिसके जी में जिधर आता है वह उधर ही उड़ान मार रहा है।
शिक्षा का युग होने पर भी घोर आश्चर्य है कि स्त्री-पुरूष किसीको अपने कर्तव्य का भान नहीं है। पथ का ज्ञान नहीं है। गम्भीरता से चिंतन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि हमारी शिक्षा पद्धति ही ऐसी है,जिसने युवक युवतियों की पवित्र भावनाओं को नष्ट कर दिया है। हमारी शिक्षा पद्धति ने उन्हें शक्तिहीन बनाकर मानसिक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ लिया है। उनके मस्तिष्क के लिए ऐसे विषय मिलते हैं, जो उनके व्यवहारिक और सार्वजनिक जीवन के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं।
सृष्टि के सृष्टिकर्ता विधाता अल्पज्ञ नहीं थे जिन्होंने स्त्री और पुरुषों में महत्वपूर्ण भेद उत्पन्न कर दिया। उनकी प्रकृति भिन्न बना दी।
इस प्रकार जब आदिकाल से ही स्त्रियों के कार्य क्षेत्र सर्वथा पृथक हैं, फिर एक ही शिक्षा दोनों के लिए कैसे उपयोगी साबित हो सकती है ?
वर्तमान स्त्री शिक्षा के प्रवाह को देखते हुए कहा जा सकता है कि स्त्रियाँ बाहरी क्षेत्र में पुरुषों से आगे निकलने के लिए होड़ ले रही हैं! यह पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव है, जिसने तन से भारतीय परन्तु मन से विदेशी बना दिया है।हमारे रग-रग में दासता आ गयी है।
परिणाम भी सामने है। हजारों युवक बी.ए और एम. ए की डिग्रियाँ लेकर नौकरी हेतु दरवाजे खटखटाते फिरते हैं। No Vacancy का बोर्ड उनके मन पर मानो वज्र के समान लगता है।
इस शिक्षा ने उन्हें वह कौशल नहीं दिया, जिसके बल पर वे श्रमपूर्वक जीविकोपार्जन कर सकें। भूख प्यास से पीड़ित ऐसे युवाओं की आत्महत्या की ख़बर पढ़कर मन कांप उठता है।
सौभाग्य से यदि उन्हें नौकरी मिली भी तो दफ़्तरों की गोरी मेम
शिक्षा का युग होने पर भी घोर आश्चर्य है कि स्त्री-पुरूष किसीको अपने कर्तव्य का भान नहीं है। पथ का ज्ञान नहीं है। गम्भीरता से चिंतन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि हमारी शिक्षा पद्धति ही ऐसी है,जिसने युवक युवतियों की पवित्र भावनाओं को नष्ट कर दिया है। हमारी शिक्षा पद्धति ने उन्हें शक्तिहीन बनाकर मानसिक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ लिया है। उनके मस्तिष्क के लिए ऐसे विषय मिलते हैं, जो उनके व्यवहारिक और सार्वजनिक जीवन के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं।
सृष्टि के सृष्टिकर्ता विधाता अल्पज्ञ नहीं थे जिन्होंने स्त्री और पुरुषों में महत्वपूर्ण भेद उत्पन्न कर दिया। उनकी प्रकृति भिन्न बना दी।
इस प्रकार जब आदिकाल से ही स्त्रियों के कार्य क्षेत्र सर्वथा पृथक हैं, फिर एक ही शिक्षा दोनों के लिए कैसे उपयोगी साबित हो सकती है ?
वर्तमान स्त्री शिक्षा के प्रवाह को देखते हुए कहा जा सकता है कि स्त्रियाँ बाहरी क्षेत्र में पुरुषों से आगे निकलने के लिए होड़ ले रही हैं! यह पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव है, जिसने तन से भारतीय परन्तु मन से विदेशी बना दिया है।हमारे रग-रग में दासता आ गयी है।
परिणाम भी सामने है। हजारों युवक बी.ए और एम. ए की डिग्रियाँ लेकर नौकरी हेतु दरवाजे खटखटाते फिरते हैं। No Vacancy का बोर्ड उनके मन पर मानो वज्र के समान लगता है।
इस शिक्षा ने उन्हें वह कौशल नहीं दिया, जिसके बल पर वे श्रमपूर्वक जीविकोपार्जन कर सकें। भूख प्यास से पीड़ित ऐसे युवाओं की आत्महत्या की ख़बर पढ़कर मन कांप उठता है।
सौभाग्य से यदि उन्हें नौकरी मिली भी तो दफ़्तरों की गोरी मेम
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