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sanskrit 2022 -23

दीपावली- शोर और शांति का द्वंद्व

धार्मिक
शुभं करोतु कल्याणं आरोग्यम सुख सम्पदः।
द्वेष बुद्धि विनाशाय दीपः ज्योति नमोस्तुते।।

यह मन्त्र मैं बचपन से सुनता आया परन्तु कभी इसके पुष्ट व समृद्ध भाव पक्ष के बारे में नहीं सोचा।
आज दीपोत्सव के बिगड़ते स्वरूप को देखकर कुछ लिखना पड़ा।वर्तमान समय में दीपोत्सव अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है और यह दुखद स्थिति है।यह स्थिति और भी चिंतनीय हो जाती है जब दीपोत्सव में व्याप्त भ्रांतियों को कुतर्कों द्वारा उचित ठहराया जाता है।

विश्व विदित है सनातन संस्कृति विश्व ही नहीं अपितु सभी लोकों के शुभ-लाभ की कामना करती है। ऐसे में दीपोत्सव का कोई भी पक्ष किसी भी दृष्टिकोण से प्रतिकूल हो ही नही सकता क्योंकि दीपोत्सव सनातनियों का उत्सव  होने के साथ सनातन उत्सव भी है।
सनातन उत्सव से मेरा अभिप्राय यह है कि भारतीय जनमानस तो युगों-युगों से दीप और ज्योति के विविध महत्वों से अवगत रहा।यही कारण रहा कि दीप को भिन्न-भिन्न संज्ञाओं से विभूषित किया गया ,यथा- ज्ञानदीप,आत्मदीप,जीवनदीप,मंगलदीप,शांतिदीप,भक्तिदीप आदि।

दीपों का यह उत्सव जड़ तथा चेतन सबकी संपन्नता का संदेश देता है। प्रश्न यह नहीं है की पटाखे जलाएं या नहीं, दीपोत्सव के अवसर पर द्यूत क्रीड़ा करें या नहीं,प्रलोभन में आकर उपभोक्तावाद का शिकार बने या नहीं या फिर येन केन प्रकारेण कुबेरपति बनें या नहीं

ये प्रश्न हमारी चिंता के कारण नहीं है क्यूंकि मैं मानता हूँ कि समाज में जब बौद्धिक क्षमता का ह्रास होता है तो समाज मूल उद्देश्य से भटक जाता है।जब परिभाषाएँ स्वयं गढ़ ली जातीं हैं तो समाज वास्तविकता से दूर होने लगता है।जब धर्म को आडम्बर बनाया जाने लगता है तो वह उन्नति का नहीं अवनति का कारण बन जाता है।

समृद्धि प्रदान करनेवाले इस उत्सव को मनाते रहने के बाद भी मानव आज त्रस्त है। ज्ञान दीप के अभाव में सौभग्य हमसे रूठता जा रहा है।कोटि कोटि मनुष्य आज अज्ञान के अंधकार में जी रहे हैं।ज्ञान ज्योति के अभाव में किंकर्तव्यविमूढ हो अपने दुर्भाग्य पर अश्रुपात कर रहे है।

ज्ञान दीप-
ज्ञान दीप को प्रज्ज्वलित किये विना सुख समृद्धि तथा जीवन में शांति की कल्पना नहीं की जा सकती।
अतः यह आवश्यक है कि अंधकार का पर्याय बन चुकी इन कुरीतियों और अप्रासंगिक व्यवस्थाओं पर ज्ञान ज्योति के द्वारा विजय और श्री दोनों की प्राप्ती की जाय।तभी सबका शुभ और कल्याण सम्भव है।

जीवन दीप--
आरोग्यता-यह दीपावली पर्व का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सन्देश है।आरोग्यता की कामना भी इस दीपोत्सव के मूल उद्देश्यों में वर्णित है।जीवनदीप निर्विघ्न जलता रहे इस हेतु आचार्यों ने कई सूत्र दिए।स्वस्थ और सुंदर काया से युक्त मनुष्य ही वसुधा के सुख सम्पदाओं का उपभोग कर सकता है।
भारत में धन्वन्तरि, सुश्रुत, चरक,कौमारभृत्य आदि आचार्यों की लंबी सृंखला रही है जिन्होंने जीवन ज्योति के शतायु व दीर्घायु होने की कामना की।आज अभागे मनुष्य दीनहीन हो अल्पायु में ही नाना प्रकार की आधि-व्याधि से पीड़ित होकर काल के गाल में प्रेवश करते जा रहे हैं।अनेकानेक चिकित्सीय संस्थाओं में संचित धन लुटाकर विपन्न होते जा रहे हैं। क्या दीपोत्सव पर जीवन ज्योति के लौ को संकट से नहीं उबारा जा सकता है ?

भक्ति दीप--
भक्ति का दीप- भक्ति की लौ जलनी चाहिए।इस दीप से तो पूरा जीवन ही उत्सव बन जाता है।यूँ तो प्रत्येक मनुष्य, किसकी भक्ति करें इसका निर्णय करने के लिए स्वतन्त्र है परंतु राष्ट्रभक्ति,मातृ भक्ति, गुरुभक्ति अनिवार्य हैं ।किसी राष्ट्र की सुख शांति के वाहक राष्ट्रभक्त नागरिक ही होते है।मनुष्य को आत्मिक और चारित्रिक विकास मातापिता तथा गुरु की भक्ति से प्राप्त होता है।यह भी सत्य है कि मातापिता संतति के जीवित रहते ही वृद्धाश्रम में कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं।क्षुद्र स्वार्थ के लिए हम राष्ट्र की अस्मिता से समझौता कर लेते हैं।तो क्या ऐसी अवस्था में समाज या राष्ट्र जर्जर नहीं होगा ? अतः  भक्ति की ज्योति जलनी चाहिए ताकि राष्ट्र सबल तथा समृद्ध बने

शांतिदीप--
हमारे मनीषियों ने शांतिदीप की भी कल्पना की और दीपावली तो शांति का पुरजोर समर्थन करती है।समाज अशांत हो तो लक्ष्मी का आगमन सम्भव नहीं है।
प्रकृति अशांत हो,वातावरण में अशांति हो ऐसी स्थितियाँ भी लक्ष्म्यागमन को रोकती है।
लक्ष्मी की प्रवृत्ति और प्रकृति शास्त्रों के अनुसार शांति का समर्थन करती है।कोलाहल और कलहपूर्ण माहौल में लक्ष्मी आने से रही।

दीपावली द्वेष बुद्धि का विनाश भी करती है।आज पारिवारिक,सांस्कृतिक,राजनैतिक तथा साम्प्रदायिक द्वेष का बड़ा विभत्स वातावरण तैयार हो  रहा है ।दीपोत्सव द्वेष बुद्धि को मिटाने तथा प्रेम और भाईचारे को बढ़ाने का संदेश देता है।

जिस पर्वं के साथ इतने गम्भीर और लोकोपकारी दर्शन जुड़े हों वह प्रकृति के विरुद्ध नहीं हो सकता।हॉँ यदि समय परिवर्तन की मांग करता है तो सहर्ष स्वीकार करना चाहिए क्योंकि सनातन संस्कृति में जड़ता नहीं है यह निर्मलता व अविरलता के साथ यह प्रवाहित होती है।

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