स्वच्छता
स्वच्छता पर लंबे-चौड़े दर्शन होने तथा स्वच्छता पर प्राचीन काल से उपदेशक की भूमिका निभानेवाली भारतीय संस्कृति की अधारस्थली(भारत) ही आज स्वच्छता से नाता तोड़ बैठी है।
भारतीय संस्कृति में स्वच्छता का सर्वप्रथम स्थान रहा है।हम आज भी यज्ञ,पूजन आदि कार्यों में सम्मिलित होते हैं तो हमे ,केशवाय नमः,माधवाय नमः,नारायणाय नमः जैसे मन्त्रों द्वारा जल पान कर शुद्ध होना पड़ता है। यह स्वच्छता कायिक,मानसिक तथा वाचिक तीनों प्रकार की होती है। स्वच्छता के प्रति ऐसी अवधारणा अन्यत्र नहीं मिलती। बाहरी वातावरण की शुद्धता के अभाव में स्वच्छता पूरी नहीं होती।अतः इस हेतु पुरोहित
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाम गतोपि वा..... इस मंत्र द्वारा बाह्य शुद्धिकरण करवाते हैं।फिर सभी दिशाओं की शुद्धता की कामना की जाती है।यह भारत का वैदिक दर्शन है।
हमारे समाज में प्रातः उठकर Bed tea की जगह सर्वप्रथम शौच, मुखमार्जन,दन्तधावन,स्नानादि क्रियाएँ अनिवार्य थीं।आज भी अधिकांश ग्रामीण भारतीय इसे अनिवार्य समझते हैं।तीनों समय स्नान या शौचोपरान्त स्नानादि कार्य अनिवार्य थे।
महिलायें भोजनादि कार्यों के साथ घर तथा बाहर के साफ-सफाई के प्रति काफी सजग रहती थी।प्रातः घर आँगन में झाड़ू ,चौका रसोई में लिपाई पुताई,भोजन पात्रों का मार्जन ये प्रतिदिन के कार्य थे।
सुबह उठकर फूल चुनना पुष्पमाला बनाना,हवन करना, हवन में औषधीय वनस्पतियों का प्रयोग करना ये सभी कार्य स्वच्छता के लिए ही थी। मैं तो कहूँगा भारतीय संस्कृति के चिरस्थायित्व का कारण और प्राण स्वच्छता ही है।
केवल स्वच्छता ही नही सफाई कर्मियों को भी भारतीय समाज ने सम्मान की दृष्टि से देखा। उनके लिए सामान्य व्यक्ति से अधिक सम्मान देते हुए "महत्तर" (महत ,महत्तर,महत्तम,)शब्द का प्रयोग किया जो
संस्कृत के 'महत' शब्द से बना है। जिसका अर्थ होता है-बड़ा या श्रेष्ठ ।यह शब्द कालांतर में मेहतर बन गया और भारतीय इन्हें नीच व्यक्ति का पर्याय बना लिए।यह देश का दुर्भाग्य था।
प्रश्न यह है कि जब हमारी संस्कृति में स्वच्छता के प्रति इतना व्यापक और विस्तृत दर्शन रहा तो फिर आज क्यूँ नहीं ?
आज हम विदेश दौरे के बाद वहाँ की साफ सफाई की खूब चर्चा करते हैं।परन्तु सीखते कुछ नहीं, करते कुछ नहीं।अपने देश के सरकार पर अकर्मण्यता का दोषारोपण कर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं।
पराधीन भारतीयों ने विदेशियों से स्वच्छता सम्बन्धी बातें कम सीखी,पर उनका स्नान न करना ,देर से सोकर उठना, धुम्रपान करना अच्छी तरह से सीखा।सन्ध्या वन्दन, त्रिकाल स्नान आदि का मज़ाक उड़ाना सिख लिया।
आज शहर गली ,मोहल्ले ,सड़कें जहाँ देखिए कचड़े का अंबार पड़ा है वो भी बेतरतीब ढंग से फैला हुआ,उसके सड़न की बदबू से तो गरुड़ पुराण में वर्णित नरकों की भी तुलना नहीं हो सकती शायद।छि !लोग वहीं रहते है। हाय!जीते जी नरकगामी होने को तत्पर हैं लोग।अफसोस!गंदगी के ढेर पर अपने दुर्भाग्य को आमंत्रित करते हैं लोग। अंतराष्ट्रीय बिरादरी में भारत का सर झुकाते है लोग। ये "लोग"कौन हैं ? ये "हम" लोग हैं। जी हाँ हम ही अस्वच्छता से मुक्ति दिला सकते हैं स्वयं को देश को। आवश्यकता है हम स्वच्छता को अपना चरित्र बना लें। शहरों में गिरी वनों में गाँवों में झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले हम अपने सभी बन्धुओं को जागरूक करें।जागरूकता अत्यावश्यक है क्योंकि सैकड़ों वर्षों से अस्वच्छता आदत व चरित्र बन गई है।जबतक जागरूकता नहीं होगी आप अपने हानि लाभ के बारे में नहीं सोच सकते।
अस्वछता देश तथा समाज के लिए दुर्दिन लाती है। यदि पिछले 100 वर्षों का इतिहास देखा जाय तो अस्वछता के कारण होनेवाली बीमारियों से सैकड़ों, हजारों नहीं बल्कि लाखों लोग एक झटके में काल का ग्रास बनें हैं। प्लेग,हैज़ा, चेचक,कालाजर, मलेरिया आदि बीमारियां इसी गन्दगी की उपज रहीं हैं। इन बीमारियों ने कई गाँवो तथा शहरों को उजाड़ कर मानवविहीन बना दिया।लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा।इतने लोगों की मृत्यु बड़े-बड़े युद्ध या दंगो में भी नहीं हुई होगी।
जहाँ एक ओर अस्वछता इतना अनर्थ करती है वहीं यदि सही प्रबंधन किया जाय तो संसाधनों का विकल्प बन सकती है। ऐसा नहीं की अस्वछता केवल भारत की समस्या है यह तो सभी देशों की समस्या रही लेकिन विकसित देशों ने जन जागरूकता तथा उचित प्रबंधन से समस्या को हल कर आदर्श कायम किया है।
बहुत दुख होता है -भारत जैसे देश में जिसकी संस्कृति का प्राण शुचिता (स्वच्छता)ही रहा, उस देश में 'स्वच्छ भारत अभियान' चलाना पड़ रहा है।यह तो ठीक उसी प्रकार हुआ की कोई देश अपने नागरिकों से कहे कि सभी लोग अपने नाक , कान तथा शरीर की गंदगी साफ़ रखें ।क्या ये भी कहने की बात है ? लेकिन अगर यह स्थिति आ ही गई है तो अभियान चलना ही चाहिए और देशवासियों को पूर्ण समर्थन देने का प्रण लेना चाहिए।
देश के विकास से जुड़े हर स्थान को हमने अस्वछ किया है।नदी, सागर ,कुँए, तालाब ,झील
सब अस्वछता की मार झेल रहे हैं।क्या हमारे पूर्वजों से हमें कचड़े में सनी नदियाँ मिली थी ?
ग्रामीण संस्कृति को सिंचित करने वाले कुँए, तालाब ,बावलियों को हमने कचड़े से ही भर दिया। पर्यटन स्थलों पर तो गंदगी फैला कर हम यह सिद्ध कर चुके है कि गन्दगी में जीना हमारी नियति है। तीर्थ स्थलों की गंदगी तो कुष्ठ रोग फैलाने के लिए प्रख्यात रही है
टिप्पणियाँ