भोली भाली आम जनता को विस्मयादिबोधक चिह्नों (!) और प्रश्नवाचक चिह्नों (?) के जाल में फँसाकर अपना उल्लू सीधा करनेवाली भारतीय मीडिया नैतिक पतन की ओर शीघ्रता से बढ़ती जा रही है।
विशाल भारतीय समाज की नकारात्मक खबरों द्वारा ऐसी मानसिकता तैयार की जा रही है कि उनको भारत मे जन्म ले लेने पर ग्लानि होती है।
लगातार बलात्कार,हत्या ,लूट की खबरों को दिखाकर ,भारत को बलात्कारियों ,हत्यारों, बर्बर आतताईयों का देश सिद्ध करने वाली मीडिया देश का कौन सा उपकार कर रही है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था और कानून की आड़ लेकर जनता के आपसी सौहार्द को बिगाड़ने वाली भारतीय मीडिया नैतिक पतन की शिकार है। जिसका एकमात्र उद्देश्य पैसा है।
चार मानसिक दिवालिया हो चुके धर्माचार्यों से T.V पर सामाजिक शांति हेतु अशांत debate करनेवाली भारतीय मीडिया का उद्देश्य क्या हो सकता है।
भारतीय युवाओं की बौद्धिक क्षमता का ह्रास करानेवाली मीडिया को क्या कहा जा सकताहै।
कपड़े की तरह पति बदलने वाली अभिनेत्रियों को बुलाकर नारी सशक्तिकरण पर चर्चा कराने वाली मीडिया आखिर क्या साबित करना चाहती है।
युवावर्ग में आदर्श व्यक्तियों की परिभाषा बदलनेवाली मीडिया, पोर्न एक्ट्रेस को कम कपड़े में अपने स्टूडियो बुलवाकर क्या परोसना चाहती है
मित्रों नैतिकता के आभाव में किसी देश के लोकतंत्र को सशक्त नहीं बनाया जा सकता। जब देश के नागरिक ,संविधान और कानूनों की अवहेलना करने लगें तो दण्ड विधान कुछ नहीं कर सकता। शासन सुचारू रूप से चलता है इसका एकमात्र कारण यह है कि देश के नागरिक और संस्थाएँ सहयोगात्मक रवैया अपनाते हैं। आज मीडिया स्वहित के लिए दर्शकों ही नहीं भारतीय लोकतंत्र का भी गला घोंटने को तत्पर है।खबरों में सनसनी पैदा करने के लिए भोली भाली तथा कम पढ़ी लिखी जनता से,मीडिया द्वारा किया जानेवाला एक मजाक का उदाहरण देखिये-
विकसित देशों के वनिस्पत हमारे देश मे अभी साक्षरता दर कम है। जितने लोग साक्षर हैं उनमें भी अधिकांश लोग (!) तथा (?) का मतलब नहीं समझते। ऐसे में देश की मीडिया की जवाबदेही नहीं बनती की सीधी-सादी जनता को जागरूक करे ? मीडिया की इस चालबाजी पर बहुतों का ध्यान नहीं जाता है। पहले हम इसे समझने का प्रयास करते हैं कि ये मामला है क्या--आपने उपर में दो चिह्नों को देखा, उसमे पहला चिह्न (!) है। हिन्दी, अंग्रेजी तथा संस्कृत में प्रयोग होने वाले इस चिह्न को विस्मयादिबोधक चिह्न कहा जाता है।इस चिह्न का प्रयोग घृणा, आश्चर्य, खुशी, दुख, शोक, तीव्र इच्छा आदि के लिए प्रयोग किया जाता है। देखिये मीडिया इसका उपयोग कैसे करती है- (1) तैयारियाँ पूरी चीन करेगा भारत पर हमला !
(2) सनकी तानाशाह की नजर भारत पर !
(3) आज के दशवें रोज धरती तबाह हो जाएगी !
(4) गोधरा कांड प्रधानमंत्री जाएँगे जेल !
दूसरा है (?) प्रश्नवाचक चिह्न- (1) राममंदिर मुद्दे से जीतेंगे चुनाव ?
(2) उत्तर कोरिया अमेरिका को बर्बाद करेगा ?
(3) हिन्दू गोमांस खाते हैं ?
इन दोनों प्रकार के चिह्नों का प्रयोग कर मीडिया कानूनी रूप से पूरी तरह सुरक्षित हो जाती है। उनकी TRP भी बढ़ जाती है। खबरों में सनसनी भी पैदा हो जाती है।पर जनता इन बड़े बड़े शीर्षकों को ही न्यूज़ मानकर भरम तथा अफवाह का शिकार हो जाती है।
भारत ने पूरे विश्व को सभ्यता का पाठ पढ़ाया और यह सत्य भी है। परंतु भारत में अगर आप आज न्यूज़ चैनल देखने बैठ जायें तो आपको लगेगा कि कैसे बर्बर ज़ाहिल असभ्य लोगों के देश मेरा जन्म हो गया। चलती ट्रेन में महिला से गैंग रेप, अपराधि बैंक लूट कर फरार, बाप ने किया रिश्ते को तारतार , पुलिस अधीक्षक रिश्वत लेते पकड़ा गया, नेता के घर से मिला 20 करोड़ कैश। 90% ऐसे खबरों को सुनकर भारतीय होने पर पछतावा होने लगता है।
मित्रों मीडिया चाहे इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट ,इनके द्वारा प्रकाशित प्रत्येक विषय वस्तु भावी पीढ़ी का इतिहास बनती है। जरा सोचिये आनेवाली पीढ़ी इन प्रकाशित विषय वस्तुओं को पढ़कर क्या सोचेगी। इन खबरों को जब वह पढ़ेगी तो उसकी धारणा यही बनेगी की उसके पूर्वज बलात्कारी,भ्रष्ट तथा लूटेरे थे।
TV पर होने वाले debate में प्रायः आवश्यक मुद्दों को छोड़ वैसे मुद्दों को चुना जाता है जो वर्तमान समय में प्रसांगिक न हों। इसके लिए ये मीडियावाले मानसिक रूप से दिवालिया हो चुके चार धर्माचार्यों या अल्पज्ञानियों को बुलाती है।ऐसे डिबेट में जो जितना जोर से चिल्लाता है वही सबसे बड़ा विशेषज्ञ माना जाता है। अंत में डिबेट का नतीजा तो कुछ नहीं निकलता परन्तु आधे घंटे के कार्यक्रम में चार बार ब्रेक जरूर ले लिया जाता है ।
मुख्यतः दिल्ली ,गुजरात, पंजाब , हरियाणा जम्मू कश्मीर और उत्तर प्रदेश की खबरों को दिखाकर 24×7 का बोर्ड लगनेवाली राष्ट्रीय मीडिया यह भूल जाती है कि भारत में और भी राज्य हैं। इनके रिपोर्टर नागालैंड, मिजोरम,त्रिपुरा,असम, हिमाचल,अरुणाचल प्रदेश तथा मेघालय जैसे राज्यों में तबतक नहीं पहुँचते जबतक कोई बड़ी अनहोनी न हुई हो। बहुत से चैनलवाले तो रिपोर्टर भी नहीं भेजते खबरें चुराकर या खरीदकर ही का काम चला लेते हैं।
यदि दर्शक भोले भाले हैं या मान लिया जाए कि वे भी सामाजिक सरोकार से हटकर मसालेदार खबरों को ही देखना पसंद करते हैं। तो भी एक जिम्मेदार मीडिया का यह फर्ज़ बनता है कि वह दर्शकों की रुचियों को परिष्कृत और परिमार्जित करे। मीडिया ऐसा नहीं करती क्योंकि दर्शक समझदार हो गए तो उनकी दुकानें बंद हो जाएँगी।
मीडिया की सोच सकारात्मक होनी चाहिए।साकारात्मक सोच के आभाव में मीडिया के अच्छे कार्य भी धूमिल हो जाते हैं।
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है मीडिया।किसी देश के विकास में विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका के साथ लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप मे मीडिया की वकालत सर्वप्रथम 'एडमण्ड बर्क' ने की थी।
विश्व के जितने भी लोकतांत्रिक देश हैं, हर देश में लोकतंत्र का विकास धीरे-धीरे ही हुआ है।सशक्त लोकतांत्रिक देशो का उदाहरण देखने से यह पता चलता है की मिडिया ने जैसा चाहा देश वैसा बन गया। चाहे जनसंचार का माध्यम रेडियो, किताब,पत्र,पत्रिका, बैनर, पोस्टर या भोंपू रहा हो। या फिर हरकारा दौड़ाना , मुनादी पिटवाना रहा हो। ये अपने-अपने समय के जनसंचार माध्यम रहे हैं। स्वतंत्रता की प्राप्ति तक ये सभी साधन देश और देश और समाज के प्रति उत्तरदायी रहे।
आज परिस्थितियाँ बदली और संचार के क्षेत्र में अमूल परिवर्तन हो गया है। मिडिया भी ब्रेकिंग न्यूज़ के दौर में आ गई। पर तकनीकी विकास से स्थितियाँ सुधरने के बजाय बिगड़ती चली गई।
मीडिया के पास बहुत शक्ति है।मीडिया इस क्षमता को सही दिशा में लगाये तो देश और समाज का कल्याण हो सकता है।
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