नमस्कार मित्रों!
दुर्भाग्य से हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता दोनों पर्यायवाची शब्द बन चुके हैं। आज अधिकांश भारतीय और संसार के प्रमुख व्यक्ति, जो हिंदुत्व को नहीं समझ पाये या अनभिज्ञ हैं,प्रायः हिंदुत्व का अर्थ साम्प्रदायिकता और हिन्दू का अर्थ साम्प्रदायिक मान लेते हैं।
पुरजोर तरीके से लगाए जाने वाले इस नारे से बड़ा भ्रमपूर्ण और अनर्गल प्रलाप कोई दूसरा हो ही नहीं सकता है।यदि आज के अनभिज्ञ भारतीय और खासकर हिंदू यह समझ सकें कि हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता में उतना ही अंतर है जितना आकाश और पाताल में है, तो मैं मानता हूँ कि मानसिक दासता की एक सृंखला और सबसे मजबूत सृंखला को तोड़ने में सफल हो जाएँगे।
हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता,इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करने के लिए यह आवश्यक है इन दोनों शब्दों पर पहले विचार कर लिया जाय।
हिन्दू- इस शब्द की परिभाषा भिन्न भिन्न प्रकार से की गई है, परंतु सबसे सटीक, विशद,सरल और प्रामाणिक परिभाषा अखिल भारतीय हिंदू-महासभा की ओर से इस प्रकार की गई है-
असिन्धो:सिंधुपर्यंता यस्य भारतभूमिका ।
पितृ भू:पुण्यभूमि:एव स वै हिन्दू:इति स्मृतः।।
अर्थात जो इस सिंधु नद से लेकर सागर(कन्याकुमारी) तक फैली इस भारत भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्य भूमि मानता है, उसे हिन्दू कहा जा सकता है। वह हिन्दू है।
कितनी सरस सुंदर और असाम्प्रदायिक परिभाषा है! यह किसी सम्प्रदाय और धर्मविशेष को इंगित करती है ,ऐसा मुझे नहीं लगता। चाहे आपकी पूजा पद्धति कुछ भी हो, चाहे आप ईश्वर को किसी भी नाम से पूजते हों आप हिन्दू नहीं हो सकते। हाँ अगर आप समग्र भारत को अपनी पुण्य भूमि और पितृभूमि मानते हैं तो आप हिन्दू हैं। वाह! कितनी राष्ट्रीयता है, कितनी देशभक्ति है इस परिभाषा में।इसमें साम्प्रदायिकता की बू तक नहीं है। जो मनुष्य इस भूमि को पितृभूमि और मातृभूमि मानेगा वह कभी इसे धोखा नहीं दे सकता। हिन्दू भारतभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर सकता है।
भारतभूमि को पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने से अभिप्राय यह है कि भारत के अतीत वर्तमान और भविष्य से उसका अटूट सम्बन्ध हो।वह भारत के समृद्ध संस्कृति को अपना माने। वह सदैव भारतभूमि पर ही अपने जन्म और मृत्यु की कल्पना करेगा।वह कभी ईश्वर से मक्का या फिलिस्तीन में जन्म दिलाने की मिन्नतें नहीं माँग सकता।वह भारत के महान पुरुषों को भारत के तीर्थों को अपना तीर्थ मानता है।
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर दो प्रकार की मनोवृत्तियाँ रहती हैं,पहली जो पुण्य भूमि की ओर आकर्षित करती हैं और दूसरी, जो पितृभूमि की ओर खींचती है। जरा सोचिए मक्का या फिलिस्तीन से भारत का युद्ध ठन जाय तो सीधे तौर पर जिसकी पुण्यभूमि की ओर आकर्षित करनेवाली मनोवृति प्रबल होगी वो निश्चित तौर पर मक्का या फिलिस्तीन का पक्ष लेगा।ऐसे में देश की नैया डूब जाएगी।
मैं उग्र राष्ट्रियता का समर्थक नहीं हूँ परन्तु शुद्ध राष्ट्रीयता का समर्थन जरूर करता हूँ।और शुद्ध राष्ट्रीयता से अभिप्राय यही है कि भारतभूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने वाले सभी हिन्दू हैं।
अब जरा संप्रदाय और साम्प्रदायिकता की परिभाषा पर विचार करें और इस परिभाषा की कसौटी पर हिन्दू को कसकर देखें की क्या सच में हिन्दू साम्प्रदायिक है।
सम्प्रदाय अर्थात चिरकाल से चली आ रही अविच्छिन्न परम्परा को सम्प्रदाय कहते हैं।इस प्रकार सनातनधर्म एक सम्प्रदाय हो सकता है। या बौद्धधर्म को एक सम्प्रदाय कहा जा सकता है क्योंकि चिरकाल से इनकी एक अटूट परम्परा अनवरत चलती चली आ रही है। इन धर्मों को मानने के जो नियम इनके प्रारम्भ में थे हजारों सालों के बाद इनके नियम आज भी वही हैं।
परन्तु हिन्दू चिरकाल से चले आने पर भी एक ही नियम, एक ही रूढ़ि,एक ही परम्परा में बंधा हुआ नहीं है। वेद का विरोध करने वाले चर्वाक भी हिंदू थे,भगवान वेद व्यास भी हिंदू थे जिन्होंने वेदों को सबसे ऊपर माना। शाक्त भी हिन्दू हैं जो हिंसा का समर्थन करते हैं। बौद्ध और जैन भी हिंदू हैं जो अहिंसा परमो धर्म: के उपासक हैं। ये सभी अलग अलग सम्प्रदाय हैं, पर व्यापक रूप में सभी हिन्दू हैं।एकत्रित होकर इनकी सत्ता राष्ट्रीयता को जन्म देती है जिसे हिंदुत्व कहते हैं।
इस तरह न तो ब्राह्मण अधिक हिन्दू है और न ही शुद्र कम हिन्दू हैं।इस आधार पर न तो हिन्दू साम्प्रदायिक है और न ही हिंदुत्व का अर्थ साम्प्रदायिकता है।
हिंदुत्व एक आदर्श राष्ट्रीय समाजवाद है जो पूरे भारतीय समाज को एक सूत्र में बाँधता है। अतएव हिंदुत्व साम्प्रदायिकता नहीं राष्ट्रीयता है-ऐसी राष्ट्रीयता, जिसका भारत के अतिरिक्त कोई अस्तित्व नहीं है। कितने सम्प्रदाय नष्ट हो गए हो रहे हैं और होंगे,पर हिंदुत्व इन सभी से ऊपर अजर और अमर है। जिस दिन हिंदुत्व के नष्ट होने की बात सोच ली जाय उसी दिन हमें भारत के समाप्त होने की बात भी समझ लेनी चाहिए।
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