नमस्कार मित्रो!
आज वर्तमान विश्व नारी समाज की महत्ता को बड़ी कठिनाई से स्वीकार कर रहा है।यह स्थिति दुःखद है। विश्व को परम् वैभव तक पहुँचाने हेतु हमे नारी की महत्ता को सहर्ष स्वीकार करना होगा।
नर वपन कर सकता है परंतु सृजन की शक्ति उसमें नहीं है। नारी(प्रकृति)के आभाव में पुरूष पंगु है। शक्ति के बिना शिव शव-समान हैं। ब्रह्मा सृष्टि करने चले, बहुत-सी मानसिक सृष्टि कर डाली, कोई उत्साह नहीं, वृद्धि की कोई आशा नहीं। नीरस नर कर ही क्या सकता है। सूखे आटे में जल न पड़े ,सरस न हो,तबतक रोटी नहीं बन सकती। ब्रह्मा हताश हुए।अब क्या करें।अंत में ब्रह्मा के दो रूप हो गए। एक से नारी दूसरे से नर।दोनों में कोई अंतर नहीं, छोटे बड़े का भेद नहीं। परन्तु एक बात ध्यान देने योग्य ह,ै ब्रह्मा के नारी रूप में मृदुलता,सौम्यता, सुकुमारता, मादकता, धैर्य, क्षमा,वशीकारिता, सुंदरता,सरसता,त्याग तथा आकर्षण नर से अधिक हुआ। तब जाकर सृष्टि की वृद्धि आरम्भ हुई।यदि नारी न होती तो सृष्टि कभी नहीं होती।
शास्त्रों में भगवान को माता तथा पिता दोनों कहा गया है। ईश्वर का मातृरूप और पितृरूप दोनों ही है लेकिन संतान का जितना स्नेह माता से होता है, जितना आकर्षण जननी के प्रति होता है उतना पिता के प्रति नहीं होता।
इसीलिए बचपन से ही शक्ति की उपासना की जाती है, सावित्री की दीक्षा दी जाती है। 'गणेशाय नमः' के बाद श्री लगाई जाती है। राम ,कृष्ण,शिव,विष्णु कोई क्यों न हो जबतक उनके पूर्व उनकी शक्ति न हो तबतक वे कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो सकते। सीता बिना राम की कल्पना नहीं हो सकती। शंकर पार्वती के बिना अपूर्ण हैं।कृष्ण तो कौड़ी का भी मोल नहीं रखते राधा के बिना।
जिस सम्प्रदाय में शक्ति की उपासना नहीं, वह सम्प्रदाय नीरस और निष्प्राण है।नारी प्राणदात्री है।नारी सृष्टि कार्य को सुचारू रूप से संचालित करनेवाली सर्वश्रेष्ठ साधन है। नारी के अनेक रूप है। नारी जगतजननी तथा जगदम्बा के रूप में सृष्टि तो काली रूप में प्रलयंकरी है। नारी दो कुलों को गौरवान्वित करती है। दो अपरिचित कुलों में मधुर सम्बन्ध की सेतु होती है। जब वह बहन रूप में राखी बांधती है तो हृदय में नवजीवन का संचार कर देती है। नारी पत्नी रूप में नर के सम्मुख आकर उसके आधे रूप को पूर्ण कर देती है। जननी रूप में सन्तान को समस्त स्नेह स्तनों द्वारा सन्तान को पिला देती है। सेवा का अनुपम आदर्श उपस्थित करती है। नारी त्याग की प्रतिमूर्ति है।स्वयं भूखे प्यासे रहकर सन्तान की क्षुधापूर्ति करती है। जब भी देखें नारी का सम्पूर्ण जीवन अपने आपको मिटाते,अपना अपनापन हटाते हुए ही पाएँगे। उसका पुत्र उसके पति के नाम से ही जाना जाता है। पति में ही अपना सर्वस्व मिला देनेवाली नारी कभी अपना अलग अस्तित्व नहीं बनाती, कभी अपनी पृथक सत्ता नहीं बनाती। उसका पति पंडित है तो स्वयं निरक्षरा होनेपर भी पंडिताइन कहलाएगी। पति डॉक्टर है तो डॉक्टराइन कहलाएगी भले ही उसको उस विषय मे जानकारी नहीं हो। पिता के घर से आती है तो सबकुछ त्यागकर चली आती है।यहाँ तक की पिता के गोत्र का भी त्यागकर देती है।इतना त्याग और कहाँ मिलेगा।
मित्रों नारी के नैसर्गिक गुण (त्याग, दया,करुणा,ममता, वात्सल्य आदि) पुरुष में आ जाते हैं तो वह महान हो जाता है, महात्मा बन जाता है। लोग बाहर साधना करके साधु कहलाते हैं, वह घर मे रहकर भी इतना उग्र तप करती है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक डर जाते हैं। वह त्रिदेवों को बच्चा बना सकती है(अनुसूया)।वह सर्वज्ञ विष्णु को शाप दे सकती है(वृंदा)। वह सूर्य की गति रोक सकती है। नारी जो चाहे कर सकती है। भगवान ने भक्तों से और पवित्रताओं से ही हार मानी है।
शास्त्रों ने नारी को सदैव अवध्या माना है।किसी वर्ग की नारी क्यों न हो, कैसी भी नारी क्यों न हो,उसे मारना घोर पाप है। समाज में भी नारी को सम्मान देने की प्रथा है। नारी के अंगों में देवताओं का वास होता है।जहाँ नारी का सम्मान होता है, पूजा होती है वहाँ सभी देवता निवास करते हैं। सारांश यह है कि नारी की रक्षा करना परम् धर्म है।भारतीय इतिहास साक्षी है कि हमने शत्रुओं की स्रियों से भी सम्मानपूर्वक व्यवहार किया। जिस समाज ने स्त्रियों पर अत्याचार किया है, उस समाज का नाश अवश्य हुआ है।
शास्त्रों में नारी की निंदा आपको कहीं भी नहीं मिलेगी। जहाँ भी ऐसे उद्धरण आये हैं, वह काम की निंदा है।काम के वश में नर हो या नारी,दोनों ही निंदनीय हैं। नहीं तो नारी तो जगतजननी जगदम्बिका है।उसका महत्व सबसे श्रेष्ठ है।नारी तो पवित्रता,सरसता,आकर्षण की मूर्ति है।
आज वर्तमान विश्व नारी समाज की महत्ता को बड़ी कठिनाई से स्वीकार कर रहा है।यह स्थिति दुःखद है। विश्व को परम् वैभव तक पहुँचाने हेतु हमे नारी की महत्ता को सहर्ष स्वीकार करना होगा।
नर वपन कर सकता है परंतु सृजन की शक्ति उसमें नहीं है। नारी(प्रकृति)के आभाव में पुरूष पंगु है। शक्ति के बिना शिव शव-समान हैं। ब्रह्मा सृष्टि करने चले, बहुत-सी मानसिक सृष्टि कर डाली, कोई उत्साह नहीं, वृद्धि की कोई आशा नहीं। नीरस नर कर ही क्या सकता है। सूखे आटे में जल न पड़े ,सरस न हो,तबतक रोटी नहीं बन सकती। ब्रह्मा हताश हुए।अब क्या करें।अंत में ब्रह्मा के दो रूप हो गए। एक से नारी दूसरे से नर।दोनों में कोई अंतर नहीं, छोटे बड़े का भेद नहीं। परन्तु एक बात ध्यान देने योग्य ह,ै ब्रह्मा के नारी रूप में मृदुलता,सौम्यता, सुकुमारता, मादकता, धैर्य, क्षमा,वशीकारिता, सुंदरता,सरसता,त्याग तथा आकर्षण नर से अधिक हुआ। तब जाकर सृष्टि की वृद्धि आरम्भ हुई।यदि नारी न होती तो सृष्टि कभी नहीं होती।
शास्त्रों में भगवान को माता तथा पिता दोनों कहा गया है। ईश्वर का मातृरूप और पितृरूप दोनों ही है लेकिन संतान का जितना स्नेह माता से होता है, जितना आकर्षण जननी के प्रति होता है उतना पिता के प्रति नहीं होता।
इसीलिए बचपन से ही शक्ति की उपासना की जाती है, सावित्री की दीक्षा दी जाती है। 'गणेशाय नमः' के बाद श्री लगाई जाती है। राम ,कृष्ण,शिव,विष्णु कोई क्यों न हो जबतक उनके पूर्व उनकी शक्ति न हो तबतक वे कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो सकते। सीता बिना राम की कल्पना नहीं हो सकती। शंकर पार्वती के बिना अपूर्ण हैं।कृष्ण तो कौड़ी का भी मोल नहीं रखते राधा के बिना।
जिस सम्प्रदाय में शक्ति की उपासना नहीं, वह सम्प्रदाय नीरस और निष्प्राण है।नारी प्राणदात्री है।नारी सृष्टि कार्य को सुचारू रूप से संचालित करनेवाली सर्वश्रेष्ठ साधन है। नारी के अनेक रूप है। नारी जगतजननी तथा जगदम्बा के रूप में सृष्टि तो काली रूप में प्रलयंकरी है। नारी दो कुलों को गौरवान्वित करती है। दो अपरिचित कुलों में मधुर सम्बन्ध की सेतु होती है। जब वह बहन रूप में राखी बांधती है तो हृदय में नवजीवन का संचार कर देती है। नारी पत्नी रूप में नर के सम्मुख आकर उसके आधे रूप को पूर्ण कर देती है। जननी रूप में सन्तान को समस्त स्नेह स्तनों द्वारा सन्तान को पिला देती है। सेवा का अनुपम आदर्श उपस्थित करती है। नारी त्याग की प्रतिमूर्ति है।स्वयं भूखे प्यासे रहकर सन्तान की क्षुधापूर्ति करती है। जब भी देखें नारी का सम्पूर्ण जीवन अपने आपको मिटाते,अपना अपनापन हटाते हुए ही पाएँगे। उसका पुत्र उसके पति के नाम से ही जाना जाता है। पति में ही अपना सर्वस्व मिला देनेवाली नारी कभी अपना अलग अस्तित्व नहीं बनाती, कभी अपनी पृथक सत्ता नहीं बनाती। उसका पति पंडित है तो स्वयं निरक्षरा होनेपर भी पंडिताइन कहलाएगी। पति डॉक्टर है तो डॉक्टराइन कहलाएगी भले ही उसको उस विषय मे जानकारी नहीं हो। पिता के घर से आती है तो सबकुछ त्यागकर चली आती है।यहाँ तक की पिता के गोत्र का भी त्यागकर देती है।इतना त्याग और कहाँ मिलेगा।
मित्रों नारी के नैसर्गिक गुण (त्याग, दया,करुणा,ममता, वात्सल्य आदि) पुरुष में आ जाते हैं तो वह महान हो जाता है, महात्मा बन जाता है। लोग बाहर साधना करके साधु कहलाते हैं, वह घर मे रहकर भी इतना उग्र तप करती है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक डर जाते हैं। वह त्रिदेवों को बच्चा बना सकती है(अनुसूया)।वह सर्वज्ञ विष्णु को शाप दे सकती है(वृंदा)। वह सूर्य की गति रोक सकती है। नारी जो चाहे कर सकती है। भगवान ने भक्तों से और पवित्रताओं से ही हार मानी है।
शास्त्रों ने नारी को सदैव अवध्या माना है।किसी वर्ग की नारी क्यों न हो, कैसी भी नारी क्यों न हो,उसे मारना घोर पाप है। समाज में भी नारी को सम्मान देने की प्रथा है। नारी के अंगों में देवताओं का वास होता है।जहाँ नारी का सम्मान होता है, पूजा होती है वहाँ सभी देवता निवास करते हैं। सारांश यह है कि नारी की रक्षा करना परम् धर्म है।भारतीय इतिहास साक्षी है कि हमने शत्रुओं की स्रियों से भी सम्मानपूर्वक व्यवहार किया। जिस समाज ने स्त्रियों पर अत्याचार किया है, उस समाज का नाश अवश्य हुआ है।
शास्त्रों में नारी की निंदा आपको कहीं भी नहीं मिलेगी। जहाँ भी ऐसे उद्धरण आये हैं, वह काम की निंदा है।काम के वश में नर हो या नारी,दोनों ही निंदनीय हैं। नहीं तो नारी तो जगतजननी जगदम्बिका है।उसका महत्व सबसे श्रेष्ठ है।नारी तो पवित्रता,सरसता,आकर्षण की मूर्ति है।
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Importance of Women |