हमने वेदादि शास्त्रों का मंथन करके राजनीति की एक स्वस्थ परिभाषा दी है उस पर ध्यान केंद्रित करें, उस को क्रियान्वित करने का प्रकल्प हो तो सारी विसंगतियों को हम दूर करने में समर्थ हो सकते हैं- " सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, संपन्न, सेवा परायण, स्वस्थ और सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाज की संरचना ", यह राजनीति की स्वस्थ परिभाषा वेदादि शास्त्रों के आधार पर उद्घोषित है। इसको क्रियान्वित करने का प्रकल्प चलाया जाए तो कोई विसङ्गति नहीं रह सकती है।
सुन लीजिए ध्यान पूर्वक - द्रोणाचार्य ब्राह्मण होकर के भी धनुर्वेद आदि में पारंगत थे या नहीं? परशुराम जी ब्राह्मण होकर के भी धनुर्वेद आदि में पारंगत थे या नहीं? विश्वामित्र जी ब्रह्मर्षि होने के बाद भी धनुर्वेद आदि में पारंगत थे या नहीं? महाभारत में लिखा है कि कोल, भील, किरात आदि जो हैं (लड़ाकू कौम), इनको रक्षा की दृष्टि से बुलंद करना चाहिए। जब देश की सुरक्षा पर कहीं से आंच आवे तो इनको भी आगे करना चाहिए। क्षत्रिय तो योद्धा भीष्मादि की तरह होते ही थे, तो मैंने एक संकेत किया। हमारे यहां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज सब के सब सैनिक होते थे। सबको सेना का प्रशिक्षण अनिवार्य होता था। महाभारत का अनुशीलन कीजिए... अगर अपने अस्तित्व और आदर्श पर आंच आ जाए तो ब्राह्मण को भी शस्त्र ग्रहण करना चाहिए। क्षत्रिय तो योद्धा होते ही हैं, वैश्यों को भी शस्त्र ग्रहण करना चाहिए। जब हमारी ये परंपरा थी तो कहीं से आंच आने की संभावना नहीं थी। मैं एक संकेत करता हूं, प्रायः साल में दस बीस बार यह उदाहरण देता हूं… ये भुजदंड हैं - शरीर के किसी अंग या प्रत्यंग पर वार की संभावना हो तो टूटने फूटने की चिंता किए बिना अपने आप को आगे कर देते हैं। इसी प्रकार... इन में यह क्षमता कहां से आई? परंपरा प्राप्त निसर्ग सिद्ध संस्कार सम्वेत ये भुजदंड हैं। जब क्षत्रियोचित ओज, तेज से व्यक्ति संपन्न होते थे तो भारत की ओर (आजकल के भारत नहीं, बृहद भारत की ओर) कोई आंख उठा कर देखने में समर्थ नहीं होता था। जब दिशाहीन अहिंसा को प्रोत्साहित किया गया, वर्णाश्रम निरपेक्ष अहिंसा को प्रोत्साहित किया गया, हमारा क्षात्र बल दुर्बल होने लगा तब से भारत की परतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हो गया।
- पुरी शंकराचार्य जी द्वारा राष्ट्ररक्षा सङ्गोष्ठी में दिए गए व्याख्यान से लिया गया।
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